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श्रीवैष्णव दीक्षा (समाश्रयनम्) का महत्व

श्रीवैष्णव दीक्षा, (समाश्रयनम्), एक भक्त के आध्यात्मिक जीवन की पवित्र और रूपांतरणकारी प्रक्रिया है। यह श्रीवैष्णव परंपरा में औपचारिक प्रवेश का प्रतीक है, जो भगवान श्रीरामानुजाचार्य की शिक्षाओं द्वारा निर्देशित होती है। इस दीक्षा के माध्यम से, एक शिष्य भगवान श्रीमन नारायण के चरणों में पूर्ण समर्पण करता है और पंच संस्कार (पाँच पवित्र चिह्न) प्राप्त करता है, जो शुद्धता, भक्ति और समर्पण का प्रतीक हैं। यह दीक्षा केवल एक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि एक दिव्य संबंध है, जो आत्मा को भक्ति (भक्तिपूर्ण प्रेम) और कैंकर्यम (निःस्वार्थ सेवा) के अपने शाश्वत कर्तव्य के साथ जोड़ती है।

श्रीवैष्णव दीक्षा प्राप्त करने से, भक्त को एक आध्यात्मिक पहचान और एक गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है, जो उसे वेदांतिक ज्ञान, भक्ति और धर्मपूर्ण जीवन की राह पर चलने के लिए मार्गदर्शन करते हैं। गुरु  मंत्र  की दीक्षा देते हैं और शरणागति (भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण) के सिद्धांतों को सिखाते हैं। इससे भक्त का मोक्ष (मुक्ति) का मार्ग प्रशस्त होता है और वह भगवान की कृपा से अपनी आध्यात्मिक यात्रा को सुरक्षित और सफल बना सकता है।  दीक्षा  के बाद भक्त का संबंध भगवान श्रीमन्  नारायण एवं जगत जननी  श्री लक्ष्मी देवी से हो जाता  है।

श्रीवैष्णव परंपरा में दीक्षा लेना एक जीवनभर का आध्यात्मिक संकल्प है, जो आंतरिक रूपांतरण, अनुशासन और दिव्य आनंद प्रदान करता है। यह भक्त को नित्य प्रार्थना, ध्यान और भगवान विष्णु की सेवा में संलग्न रहने के लिए प्रेरित करता है और प्रेम, शांति, तथा निःस्वार्थ सेवा को बढ़ावा देता है। इस पवित्र प्रक्रिया के माध्यम से, भक्त श्रीरामानुजाचार्य की दिव्य परंपरा का अभिन्न अंग बन जाता है, जिससे उसकी आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष (वैकुंठ धाम में भगवान विष्णु की शाश्वत सेवा) सुनिश्चित होती है।

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